अब कितना और जलोगे तुम / बनज कुमार ‘बनज’
ये क़दम पूछते हैं मुझसे अब कितना और चलोगे तुम।
गीली लकड़ी की बस्ती में अब’ कितना और जलोगे तुम।
माना तुम क्षमता के नायक,
हो सृजन तीर्थ के उन्नायक।
बहते आँसू मन की कराह को,
गाते हो अद्भुत गायक।
हिमगिरी-सा मस्तक बोल उठा, अब कितना और गलोगे तुम।
गीली लकड़ी की बस्ती में अब, कितना और जलोगे तुम।
तुम कतरा भी और सागर भी,
हो स्त्रोत स्वयं और स्वयं अन्त।
तुम पल भर में सीमित लगते,
और पल में हो जाते अनन्त।
कह कर आँखों ने पूछा फिर, अब कितना और छलोगे तुम।
गीली लकड़ी की बस्ती में अब, कितना और जलोगे तुम।
हो तितली भँवरा फूल कलि,
तुम पवन आग पानी बिजली।
हो शब्द साधना में विलीन,
फैलाते ख़ुशबू गली-गली।
मन ने पूछा रुक कर मुझसे, क्या इसी तरह मचलोगे तुम।
गीली लकड़ी की बस्ती में अब, कितना और जलोगे तुम।
तुम दीपक हो तुम ही बाती,
तुम अक्षर हो तुम ही पाती।
मैं देख चुकी हूँ कई बार,
तुम धर्म-कर्म की हो थाती।
कह कर पूछा परछाई ने, कब वस्त्र मेरे बदलोगे तुम।
गीली लकड़ी की बस्ती में, अब कितना और जलोगे तुम।