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अब के बरसात की रुत और भी भड़कीली है / 'मुज़फ्फ़र' वारसी

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अब के बरसात की रुत और भी भड़कीली है
जिस्म से आग निकलती है, क़बा गीली है

सोचता हूँ के अब अंजाम-ए-सफ़र क्या होगा
लोग भी काँच के हैं, राह भी पथरीली है

शिद्दत-ए-कर्ब में तो हँसना कर्ब है मेरा
हाथ ही सख़्त हैं ज़ंजीर कहाँ ढीली है

गर्द आँखों में सही दाग़ तो चेहरे पे नहीं
लफ़्ज़ धुँधले हैं मगर फ़िक्र तो चमकीली है

घोल देता है सम'अत में वो मीठा लहजा
किसको मालूम के ये क़न्द भी ज़हरीली है

पहले रग-रग से मेरी ख़ून निचोड़ा उसने
अब ये कहता है के रंगत ही मेरी पीली है

मुझको बे-रंग ही न करदे कहीं रंग इतने
सब्ज़ मौसम है, हवा सुर्ख़, फ़िज़ा नीली है

मेरी परवाज़ किसी को नहीं भाती तो न भाये
क्या करूँ ज़ेहन "मुज़फ़्फ़र" मेरा जिबरीली है