अब के रक्तबीज पनपे / नीलोत्पल
आग उमची है भीतर
हर ज़िक्र ख़ामोश उबल रहा
आग उन बेबस चेहरों की
जो जगह-जगह से झुलसे हैं
कितनों के नाम लें
हर चेहरा जी रहा निर्दोष
न रक्त का पता न वंश का
जला हुआ टुकड़ा
धरती के हाशिए पर धधकता
लौटने की ख़ातिर ख़ामोश आवाज़ें
खदबदाती हैं दिलों में
मैं निकला हूँ जड़ें कुरेदता
कौन-सा धर्म बड़ा ?
पूछता हूँ अंधेरे भरे कोनों से
कितनी लाशें हमारे कंधों पर
रिश्तों का स्खलन ख़ंजर की तरह उतरता सीने में
सच अब कैसा
जितने सच उतनी आग
क्यों भड़का हुआ-सा इंसानों का हुजूम?
कहीं मांग, कहीं आंदोलन
उत्पात, हड़ताल, तोड़फोड़, आगज़नी
इंसान कहीं नहीं
अब के रक्तबीज पनपे
जबकि अनाज की पोटली में अंकुर फूटते
हर शब्द सीमा के बाहर
हर आवाज़ बेलगाम
हर दिल में नफ़रत
आग हमारे चारों ओर
धुनता हूँ रूई सरीखे अहसास
हाथ आती हैं चिंगारियाँ
दुनिया में रहकर इसमें धँसकर
बिच्छुओं के फन बिलबिलाते छातियों पर
कौन वह जो अवतारों के फेर में पडे़
लोगों की समझ को तोडे़
जो बाज़ार में खड़े हों
बताए छिपे वारों को
कौन वह जो
आग बुझाए भीतर की