भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें / फ़राज़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुम्किन<ref>सम्भव</ref> है ख़राबों<ref>मदिरालयों </ref> में मिलें

तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों<ref>पर्दों</ref> में मिलें

ग़म-ए-दुनिया<ref>सांसारिक दुख </ref> भी ग़म-ए-यार<ref>मित्र का दुख</ref> में शामिल कर लो
नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें

आज हम दार<ref>सूली</ref> पे खेंचे गये जिन बातों पर
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों<ref>पाठ्यक्रमों में</ref> में मिलें

अब न वो मैं हूँ न तू है न वो माज़ी<ref>अतीत्</ref> है "फ़राज़"
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों<ref> मृगतृष्णा</ref> में मिलें

शब्दार्थ
<references/>