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अब कैं राखि लेहु गोपाल / सूरदास

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राग कान्हरौ

अब कैं राखि लेहु गोपाल ।
दसहूँ दिसा दुसह दावागिनि, उपजी है इहिं काल ॥
पटकत बाँस काँस-कुस चटकत, टकत ताल-तमाल ।
उचटत अति अंगार, फुटत फर, झपटत लपट कराल ॥
धूम-धूँधि बाढ़ी धर-अंबर, चमकत बिच-बिच ज्वाल ।
हरिन बराह, मोर चातक, पक, जरत जीव बेहाल ॥
जनि जिय डरहु, नैन मूँदहु सब, हँसि बोले नँदलाल ।
सूर अगिनि सब बदन समानी, अभय किए ब्रज-बाल ॥


भावार्थ :-- (गोपबालक कहते हैं -) `गोपाल! इस बार रक्षा कर लो । इस समय दसों दिशाओं में असह्य दावाग्नि प्रकट हो गयी है । बाँस पटापट शब्द करते फट रहे हैं, जलते कुश एवं काश से चटचटाहट हो रही है, ताल और तमाल के (बड़े) वृक्ष भी (जलकर) गिर रहे हैं । बहुत अधिक चिनगारियाँ उछल रही हैं, फलफूट रहे हैं और दारुण लपटें फैल रही हैं । धुएँ का अन्धकार पृथ्वी से आकाश तक बढ़ गया है, उसके बीच-बीच में ज्वाला चमक रही है । हरिन, सूअर, मोर, पपीहे, कोयल आदि जीव बड़ी दुर्दशा के साथ भस्म हो रहे हैं ।'(यह सुनकर) श्रीनन्दलाल हँसकर बोले--`अपने चित्त में डरो मत ! सब लोग नेत्र बंद कर लो। 'सूरदास जी कहते हैं कि सब अग्नि मेरे प्रभु के मुख में प्रविष्ट हो गयी, उन्होंने व्रज के बालकों को निर्भय कर दिया ।