अब कॉलेज में / मोहिनी सिंह
स्कूल से लौटके माँ
कितने किस्से होते थे ना?
तुम दरवाजे पर उतारती थी मेरे कन्धों से
कहानियों से भरा बस्ता
और सुनती थी
गुल्लू का गिरना
सुन्नी का पिटना
समझ तो तुम मेरी आँखों की चमक से ही जाती थी
आज मेरे लिए ताली बजी
आज मेरे आये पूरे नंबर
कल हम पिकनिक जाएँगे
आज हमने देखा बन्दर
चलते रहते मेरे किस्से
मुझे कहाँ पता चलता कि सुनते सुनते तुम
बदलती जाती हो मेरे कपड़े,जूते
बहला देती हो इन्हीं किस्सों में
मेरी नई फ्रॉक पहनने की जिद
कद्दू खिलाने के लिए करती हो मेरे साथ
पूजा की चुगली, रश्मि की तारीफ़
सीमा जैसी गुड़िया दिलाने का वादा
और वादे में लपेटकर खिल देती हो
बैंगन का टुकड़ा
चलते रहते मेरे किस्से।
खाते वक़्त तुम टोकती
"खाते समय बात नहीं करते"
दो निवाले भर के लिए मैं रोकती
पर फिर चल पड़ते मेरे किस्से
अगली डपट तक के लिए
पर माँ अब मैं खाते समय नहीं बोलती
खा लेती हूँ चुपचाप
वो कद्दू भी और बैंगन भी
खुद के बनाये बेस्वाद
(नमक रखके साथ)
अब दबे पड़े रहते हैं मेरे किस्से
मेरे बस्ते के साथ
किराये के कमरे के कोने में
मेरी तरह सुस्ताते
क्या तुम अब भी वहाँ दोपहर में दरवाजा निहारती हो?