अब क्या कोई सुने कि कहो क्या कोई कहे / रवि सिन्हा
अब क्या कोई सुने कि कहो क्या कोई कहे
बेगानगी का शहर मुझे अजनबी कहे
शोरिश<ref>हंगामा (tumult)</ref> क़रार ख़ार<ref>काँटे (thorns)</ref> के गुल क्या ख़िज़ाँ<ref>पतझड़ (autumn)</ref> बहार
जो ग़र्क़े-ज़िन्दगी<ref>जीवन में निमग्न (immersed in life)</ref> है तमाशा वही कहे
क़ुदरत के क़ायदे खुले असरार<ref>मर्म (secrets)</ref> भी खुले
इल्मो-ख़िरद<ref>ज्ञान और बुद्धि (knowledge and intelligence)</ref> से अब तो कहो आदमी कहे
जब होशो-चश्मो<ref>आँख (eye)</ref>-गोश<ref>कान (ear)</ref> रिफ़ाक़त<ref>साहचर्य (companionship)</ref> में साथ हों
हुस्ने-ख़याल को ही अदब बन्दगी कहे
माना सुख़न शरीके-दहर<ref>युग (era)</ref> ख़ल्क़<ref>लोग (people)</ref> की ज़ुबान
शायर कभी कभार तो दिल की लगी कहे
बारिश हुई है उस पे, समन्दर को देखिए
बिजली गिरी है जिस पे उसे क्या कोई कहे
मक़्ता<ref> ग़ज़ल का आख़िरी शे'र(last she’r of the Ghazal)</ref> कहे बग़ैर ही शायर चला गया
अब तुम कहो वो शे'र जिसे ज़िन्दगी कहे