अब ख़ून को मय क़ल्ब को पैमाना कहा जाए / मलिकज़ादा 'मंजूर'
अब ख़ून को मय क़ल्ब को पैमाना कहा जाए
इस दौर में मक़तल को भी मय-ख़ाना कहा जाए
जो बात कही जाए वो तेवर से कही जाए
जो शेर कहा जाए हरीफ़ाना कहा जाए
हर होंट को मुरझाया हुआ फूल समझीए
हर आँख को छलका हुआ पैमाना कहा जाए
सुनसान हुए जाते हैं ख़्वाबों के जज़ीरे
ख़्वाबों के जज़ीरों को भी वीराना कहा जाए
वाइज़ ने जो फ़रमाया था मेहराब-ए-हरम में
रिन्दों से वो क्यूँ साक़ी-ए-मय-ख़ाना कहा जाए
तपते हुए सहरा में भी कुछ फूल खिलाएँ
कब तक लब ओ रूख़सार का अफ़साना कहा जाए
हम सुब्ह-ए-बहाराँ की तमाज़त से जले हैं
हम से गुल ओ शबनम का न अफ़साना कहा जाए
दीवाना हर इक हाल में दीवाना रहेगा
फ़रज़ाना कहा जाए के दीवाना कहा जाए
मख़दूम से हम को भी निस्बत वहीं ‘मंजूर’
रिन्दों में जिसे निस्बत-ए-पैमाना कहा जाए