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अब गिरिजाघर के घंटे कोई ईसा नहीं बजाता / राकेश पाठक
Kavita Kosh से
तलबे में जमी प्रेम कविताएँ मसल दी गयीं
रौंद दिए गए अतीत के चुने हुए फूल भी
जिस प्रेम को तुमने चुना
बह गए उसी अशरीरी आँखों के हिस्से से
और अंगारों की तरह दहकने लगा था प्रेम उन्हीं तलबों के उताण्ड सेे
यही से दो हिस्से भी हुए
एक रौंदा गया लाल स्वस्तिक के साथ
दूजा बाँट दिया गया मृत संसार को
इस अशरीरी आत्मा के आह्वान के लिए
अब गिरिजाघर के घंटे कोई ईसा नहीं बजाता.