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अब चलो फिर आज गँगा में नहाएँ / सुरेन्द्र सुकुमार
Kavita Kosh से
अब चलो फिर आज गँगा में नहाएँ
और अपने नाम की डुबकी लगाएँ
फिर रचेगा कोई बिन्दिया शैवाल पर
कोई भटकी याद आएगी सुनो
ताड़ वृक्षों पर जमेंगीं ओस की बून्दें
जिन्हें हम चुनें कुछ तुम चुनो
फिर से हरियल बाँस की नैया बनाएँ
और उसमें बैठ कर के पार जाएँ
और अपने नाम की डुबकी लगाएं
फिर से सूरज तपताएगा सुनो
धूप होगी बाबरी फिर से
फिर रखेंगी मौन ये चँचल हवाएँ
चान्दनी होगी सँगमरमरी फिर से
बहुत बड़बोली दिशाएँ डींग मारेंगी
चलो, चल कर इन्हें शीशा दिखाएँ
और अपने नाम की डुबकी लगाएँ