भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब चेतना रमती नहीं / कविता भट्ट

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


तुम कहाँ से खोज लोगे,
जब मैं स्वयं में ही नहीं।
विश्व के इन आडंबरों में,
अब चेतना रमती नहीं।

लड़खड़ाते हैं पग मेरे,
वश में कुछ है ही नहीं।
सफलता के शिखरों में,
अब चेतना रमती नहीं।

विकल्प पंगु अब बुद्धि के,
संकल्प अब हैं ही नहीं।
विचारों के घने बीहड़ों में,
अब चेतना रमती नहीं।

प्रेम निष्ठुर हो चुका है,
प्रेमिका अब है ही नहीं।
भुजपाश और चुम्बनों में,
अब चेतना रमती नहीं।

भस्मीभूत तन हो चुका है,
उद्दीपिका अब है ही नहीं।
बालसुलभ झुनझुनों में,
अब चेतना रमती नहीं।

मन विलग हो चुका है,
संवेदना अब है ही नहीं।
मोह के विष-बन्धनों में,
अब चेतना रमती नहीं।
-0-