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अब छाया में गुँजन होगा / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

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अब छाया में गुँजन होगा, वन में फूल खिलेगे
दिशा-दिशा से अब सौरभ के धूमिल मेघ उठेंगे
जीवित होंगे वन निद्रा से निद्रित शैल जगेंगे
अब तरुओ में मधु से भीगे कोमल पंख उगेगे

मेरे उर से उमड़ रही गीतों की धारा
बनकर ज्ञान बिखरता है यह जीवन सारा
किन्तु कहाँ वह प्रिय मुख जिसके आगे जाकर
मैं रोऊँ अपना दुःख चटक-सा मंडराकर

किसके प्राण भरूँ मैं इन गीतों के द्वारा
मेरे उर से उमड़ रही गीतों की धारा
मेरे काँटे मिल न सकेगे क्या कुसुमों से
मेरी आहें मिल न सकेंगी हरित द्रुमो से

मिल न सकेगा क्या शुचि दीपों से तम मेरा
मेरी रातों का ही होगा क्या न सबेरा
मिथ्या होगे स्वप्न सभी क्या इन नयनो के
मेरे..................................................

चाह नहीं है, अब मेरा जीवन शीतल है
द्वेष नहीं है, अब मेरा उर, हो गया सरल है
गई वासना, गया वासनामय यौवन भी
मिटे मेघ, मिट गया आज उनका गर्जन भी
मैं निर्बल हूँ पर मुझको ईश्वर का बल है