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अब जबकि तुम इस शहर में नहीं हो / शरद बिलौरे
Kavita Kosh से
हफ़्ते भर से चल रहे हैं
जेब में सात रुपये
और शरीर पर
एक जोड़ कपड़े
एक पूरा चार सौ पृष्ठों का उपन्यास
कल ही पूरा पढ़ा,
और कल ही
अफ़सर ने
मेरे काम की तारीफ़ की।
दोस्तों को मैंने उनकी चिट्ठियों के
लम्बे-लम्बे उत्तर लिखे
और माँ को लिखा
कि मुझे उसकी ख़ूब-ख़ूब याद आती है।
सम्वादों के
अपमान की हद पार करने पर भी
मुझे मारपीट जितना
गुस्सा नहीं आया
और बरसात में
सड़क पार करती लड़कियों को
घूरते हुए मैं झिझका नहीं
तुम्हें मेरी दाढ़ी अच्छी लगती है
और अब जबकि तुम
इस शहर में नहीं हो
मैं
दाढ़ी कटवाने के बारे में सोच रहा हूँ।