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अब ज़िन्दगी से वो मेरी जा भी नहीं सकता / उत्कर्ष अग्निहोत्री

अब ज़िन्दगी से वो मेरी जा भी नहीं सकता,
पर उसपे अपना हक़ मैं जता भी नहीं सकता।

कश्ती को नाख़ुदा नहीं लाया है ख़ुदा ही,
वरना मैं इस मुकाम पे आ भी नहीं सकता।

यारो! ज़्ाबाँ की हद हुआ करती है उससे मैं,
ख़ुशबू की कोई शक्ल बना भी नहीं सकता।

तोड़ा है उसने आइना इस एहतियात से,
रो भी नहीं सकता हूँ गा भी नहीं सकता।

दीपक जो डूब जाए कोई अपनी अना में,
फिर कोई उस दिये को जला भी नहीं सकता।