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अब जो इक हसरत-ए-जवानी है / मीर तक़ी 'मीर'
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अब जो इक हसरत-ए-जवानी है
उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है।
ख़ाक थी मौजज़न जहाँ में, और
हम को धोखा ये था के पानी है।
गिरिया हर वक़्त का नहीं बेहेच
दिल में कोई ग़म-ए-निहानी है।
हम क़फ़स ज़ाद क़ैदी हैं वरना
ता चमन परफ़शानी है।
याँ हुये 'मीर' हम बराबर-ए-ख़ाक
वाँ वही नाज़-ओ-सर्गिरानी है।