अबतक सपने रहे अधूरे, एक गीत भी गा न सका मैं,
पत्र पतंगों ने लिख भेजे, दीपक मगर जला न सका मैं!
बहुत पुकारा पगडंडी ने, अपने क़दम चला न सका मैं!
सागर का सन्देशा आया, कवि ! लहरों से चाँद मिला दो,
मजनू बोला गीतकार ! तुम विरह-गीत की शिखा जला दो!
धरती बोली- सुनो ! प्यास का मर्म आज कहदो अम्बर से,
मानव के आँसू बोले- तुम घाव विश्व का भर दो स्वर से.
लेकिन, मानव को मानव के पास अभी तक ला न सका मैं,
आसमान, धरती से मिलकर गाये, ऐसा गा न सका मैं!
अब तक सपने रहे अधूरे...
कौन गा रहा गीत? गीत पर कैसे हो विश्वास किसी का?
गीतकार के नाम बिक रहे, कैसे बढ़े विकास किसी का?
गीत स्वयं मुझसे कहते हैं- कवि ! मेरा श्रृंगार सजा दो,
टूट रहे घूँघरू के दाने, पाँव बढ़ा दो - हाथ बढ़ा दो.
हाथों में ज़ंजीर बँधी है, बाती तक उकसा न सका मैं,
आसमान, धरती से मिलकर गाये, ऐसा गा न सका मैं!
अब तक सपने रहे अधूरे...
एक गीत भी गा न सका मैं, स्वर बाँधे तो गीत बँध गये,
ओर-छोर तक सिसकन ही थी, साधा तो संगीत बँध गये.
कला पतन के पथ से बोली- गीतकार तुम लाज बचाना,
कलाकार ! हो सके अगर तो आकर मेरी लाश उठाना!
मगर, गीत के हाथों से खुद अपने को सहला न सका मैं,
मुझे तड़पता देख हँसे सब, अपना जी बहला न सका मैं!
अब तक सपने रहे अधूरे...
ऐसे; गीत लिखे कितने ही, उमर गुजारी गीत बनाकर,
मैं प्रयोग कर रहा कि देखूँ आँसू को संगीत बनाकर!
साथ समय ही नहीं दे रहा, भावुकता का दोष न कहना,
सागर के प्यासे को कोई, शबनम पर बेहोश न कहना!
विस्मय तो यह, चला बहुत पर, मंज़िल अपनी पा न सका मैं,
चौराहे से चला, राह भी मालूम है पर, जा न सका मैं!
अब तक सपने रहे अधूरे...
रोना भी चाहा तो, आँसू बाहर अपने ला न सका हूँ,
चाहा बनना मेघ मगर, जलती धरती पर छा न सका हूँ.
पत्र पतंगों को लिखकर भी उनतक मैं पहुँचा न सका हूँ,
है इतना सन्तोष, उदासी पाकर भी घबड़ा न सका हूँ !
सोचा तक भी नहीं, कि अब तक नायक क्यों कहला न सका मैं-
कला अधूरी रही, अधूरे गीतों से नहला न सका मैं !
अब तक सपने रहे अधूरे...