भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब तो मरग्यो खेत / हनुमान प्रसाद बिरकाळी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

म्हे जांवता
चरावण भेत
परलै खेत
रमता आखै दिन
उडांवता रेत
आंगळयां सूं कोरता
मन रा चितराम!

अब कठै
बै दिन
बो भेत
बा रेत
कठै मांडां
अब लीकलिकोळिया
अब तो ऊभा है
चौगड़दै राखस वरणां
मै'ल माळिया
सुरसा सी सड़कां
अब तो मरग्यो खेत
मन में ई पसरगी
उथळती बा रेत।