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अब धरा फिर से संवारी चाहिये / रंजना वर्मा

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अब धरा फिर से सँवारी चाहिये
इसलिये सेवा तुम्हारी चाहिये

जिंदगी की है अनोखी राह पर
भावना कल्याणकारी चाहिये

जब कभी अज्ञात पथ हो सामने
साथ रक्षक सी दुधारी चाहिये

व्यर्थ जीवन हो न जाये देखना
लक्ष्य को उन्मुख सवारी चाहिये

है सुनारों की बहुत खुट खुट चली
अब हथौड़ा एक भारी चाहिये

फिर न अनुचित दांव चल जाये कोई
क्यों युधिष्ठिर सा जुआरी चाहिये

रक्तबीजों का करे संहार जो
कालिका जैसी कुमारी चाहिये