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अब नहीं है शेष कोई / स्वाति मेलकानी
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महाशून्य की ओर
निरंतर बढ़ती मैं
घसीटती हूँ
अपने रेंगते कदमों को
और
छिलते घुटनों से
निकलता रक्त
सड़क पर पड़ते ही सूख जाता है।
मेरे गुजर जाने का
कोई चिन्ह्
शेष नहीं रहता।
जीवन में लौटने के
सभी दरवाजों को
स्वयं बंद करती
मैं रेंगती जाती हूँ
शरीर की प्रत्येक कोशिका
आवेशित होकर
देती है साथ मेरा
और वितृष्णा से भरी मैं
रेंगती जाती हूँ
नहीं यह नहीं
नहीं वह नहीं
नहीं तुम नहीं
नहीं तुम नहीं
तुम भी नहीं
तुम भी नहीं
अब नहीं है शेष कोई
रोक जो पाएगा मुझको
मैं निरंतर रेंगती हूँ
अंत तक चलती रहूँगी
खोज मेरी व्यर्थ है अब
ना मिलूँगी
ना मिलूँगी
ना मिलूँगी।