अब नहीं / योगेन्द्र दत्त शर्मा
यह विलंबित अर्थच्युत स्वीकार
राघव, अब नहीं।
हिल गये मन के सभी आधार
राघव, अब नहीं!
ओ धरित्री मां! फटो, मुझको संभालो गोद में
यह मिलन की यंत्रणा होगी न अब मुझसे सहन
छीलते अपमान का विष घुल रहा आमोद में
और झुलसाने लगा अभिशाप-सा अंतर्दहन
और ज्यादा दृप्त मन की हार
राघव, अब नहीं!
क्षीरसागर से छलकता क्षार
राघव, अब नहीं!
इस विवश स्वीकार की मैंने न की थी कामना
किन्तु यह दारुण विरह भी तो न मेरा प्रेय था
जिस विकट कटु सत्य का, करती रही मैं सामना
वह किसी निर्मम नियति का मर्मवेधी श्रेय था
पर नियति का स्नेह यह दुर्वार
राघव, अब नहीं!
मरुथलों का मृगजली उपहार
राघव, अब नहीं!
सौंपना तुमको तुम्हारे पुत्र-मेरा धर्म था
यह धरोहर सौंपकर मैं हो गई तुमसे उऋण
भूल बैठी हूं कि मेरा भी हृदय था, मर्म था
अस्मिता मेरी हुई अब तो विरस, कृषकाय तृण
वंचनाओं से पुनः अभिसार
राघव, अब नहीं!
यह अधूरा, विद्ध साक्षात्कार
राघव, अब नहीं!
लोक-मर्यादा-पुरुष तुम बन गये रघुकुल तिलक!
किन्तु मैं रह-रह तुम्हारे यज्ञ की समिधा बनी
सिसकियों में ही सिमटकर रह गई मन की किलक
मैं जली निर्धूम ज्वाला में, व्यथा से अनमनी
आत्मछलना का वही विस्तार
राघव, अब नहीं!
टूटते-बनते विरल आकार
राघव, अब नहीं!
प्रथम दर्शन का वरण, वह राग-क्षण, वह अर्चना
वन-वनांतर की विकल भटकन बनी अवसादमय
व्यंग्य बन रिसती रही आहत, तरल संवेदना
कांपता, हिलता रहा खंडित धुनष-सा यह हृदय
आत्मदंशी मोह की मनुहार
राघव, अब नहीं!
विभ्रमों का निष्करुण व्यापार
राघव, अब नहीं!
आह! वह वनवास, यह निर्वास-सब कुछ तो सहा
दंश लेकर, अग्नि के दाहक निकष पर भी चली
उफ! परीक्षा ही परीक्षा, पर न कुछ भी तो कहा
अश्रुओं के अर्ध्य से देती रही वरणांजली
मुस्कुराता सौम्य हाहाकार
राघव, अब नहीं!
छटपटाती रेत पर जलधार
राघव, अब नहीं!
आह! मिथिला मातृ-भू! मेरे विदेहात्मा पिता!
देह का अंतिम विसर्जन कर रही है जानकी
साथ में लेकर सहज विश्वास-आस्थागर्विता
दे रही निश्छल, सरल निष्काम आहुति प्राण की
शांत लहरों से उठेगा ज्वार
राघव, अब नहीं!
सुन सकोगे ये थके उद्गार
राघव, अब नहीं!
ओ समय! ओ वायु! ओ आकाश! माटी! अग्नि! जल!
ओ पितामह सूर्य! तुम साक्षी बनो इस पर्व के
आज यह निर्लक्ष्य यात्रा-पा रही विश्राम-पल
दे रहे आशीष ये अभिशप्त-से क्षण गर्व के
रिक्तता का अन्यतम आभार
राघव, अब नहीं!
अनमने रोमांच का संचार
राघव, अब नहीं!
-15 मार्च, 1999