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अब न हो शकुनी सफल हर दाँव में / रवीन्द्र प्रभात
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भर दे जो रसधार दिल के घाव में,
फिर वही घुँघरू बँधे इस पाँव में !
द्रौपदी बेबस खड़ी कहती है ये
अब न हो शकुनी सफल हर दाँव में!
बर्तनों की बात मत अब पूछिए
आजकल सब व्यस्त हैं टकराव में!
मंहगाई और मेहमान दोनों हैं खड़े
काके लागूँ पाय इस अभाव में?
है हर तरफ़ क्रिकेट की चर्चा गरम
बेडियाँ हॉकी के पड़ गईं पाँव में!
है सफल माझी वही मझधार का
बूँद एक आने न दे जो नाव में!
बात करता है अमन की जो ’प्रभात’
भावना उसकी जुड़ी अलगाव में!