भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब पसर आए हैं रिश्तों पे कुहासे कितने / नवनीत शर्मा
Kavita Kosh से
अब पसर आए हैं रिश्तों पे कुहासे कितने
अब जो ग़ुर्बत में है नानी तो नवासे कितने
चोट खाए हुए लम्हों का सितम है कि उसे
रूह के चेहरे पे दिखते हैं मुहाँसे कितने
सच के क़स्बे पे मियाँ झूठ की है सरदारी
अब अटकते हैं लबों पर ही ख़ुलासे कितने
थे बहुत ख़ास जो सर तान के चलते थे यहाँ
अब इसी शहर में वाक़िफ़ हैं अना से कितने
अब भी अंदर है कोई शय जो धड़कती है मियाँ
वरना बाज़ार में बिकते हैं दिलासे कितने .