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अब भी पर्दे हैं वही पर्दा-दरी तो देखो / मज़हर इमाम

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अब भी पर्दे हैं वही पर्दा-दरी तो देखो
अक़्ल का दावा-ए-बालिग़-नज़री तो देखो

सर पटकते हैं कि दीवार-ए-ख़ुमिस्ताँ ढा दें
हज़रत-ए-शैख़ की आशुफ़्ताँ-सरी तो देखो

आज हर ज़ख़्म के मुँह में है ज़बान-ए-फ़रियाद
मेरे ईसा की ये वसीअ-उन-नज़री तो देखो

कै़द-ए-नज़्ज़ारा से जल्वो को निकलने न दिया
दोस्तो की ये वसीअ-उन-नज़री तो देखा

उन से पहले ही चले आए जनाब-ए-नासेह
मेरे नालो की ज़रा ज़ूद-असरी तो देखो

है तग़ाफ़ुल कि तरवज्जोह नही खुलने पाता
हुस्न-ए-मासूम की बेदाद-गरी तो देखो

मुझ से ही पूछ रहा है मिरी मंजिल का पता
मेरे रहबर की ज़रा राह-बरी तो देखो

उन दे आए हैं ख़ुद अपनी मोहब्बत के ख़ुतूत
ग़म-ग़ुसारो की ज़रा नामा-बरी तो देखो

दोनो ही राह में टकराते चले जाते हैं
इश्‍क़ और अक़्ल की ये हम-सफ़री तो देखो

जावेदाँ क़ुर्ब के लम्हात हुए हैं मज़हर
ताइर-ए-वक़्त की बे-बाल-ओ-परी तो देखो