अब मूक प्रणय अत्यन्त हुआ / गिरधारी सिंह गहलोत
अब मूक प्रणय अत्यन्त हुआ
आओ न खुलकर प्यार करें
अभिसार करें
नयनों की भाषा से अब तक
प्रियतम ! बहुत कुछ कथन हुआ
मन की अभिलाषा से अब तक
ये ज्ञात परस्पर चयन हुआ
अधरों को अधरों से जुड़कर
सहचर कुछ बातें करनी है
रसना जब बोलेगी खुलकर
फिर रस की धारा बहनी है
इक कालखण्ड परिपूर्ण हुआ
नव युग का हो अब शिलान्यास
अब छोड़ कल्पना का आँगन
आनंद पाने का हो प्रयास
आओ न आनंद पाने को
आगे का पथ स्वीकार करें
अभिसार करें
अब मूक प्रणय...
आरक्त कपोलों पर मुझको
नव प्रेम को मुद्रित करने दो
सर्पिल केशों को सहलाकर
स्व प्रेम प्रदर्शित करने दो
छुअन से जब हो स्पंदन
करने दो मुझको आलिंगन
छा जाये चतुर्दिक मादकता
छूने दो अब तो सारा तन
श्वासों से हो श्वासों का मिलन
धडकन से मिल जाये धडकन
अग्नि सी जब प्रवाहित हो
तब धन्य धन्य होगा यौवन
यौवन के ये क्षण जीने को
आओ तन एकाकार करें
अभिसार करें
अब मूक प्रणय...
कब तक अभिलाषाओं का प्रिये
यूँ दमन हमें करना होगा
एकांत सताता बहुत आज
कब तक आहें भरना होगा
चाहो तो अब निर्णय ले लें
बांधे इक दूजे से बंधन
अब हुई प्रतीक्षा बहुत कठिन
दिन दिन बढ़ती है और अगन
करूँ लाख जतन बस न चलता
तूफान के सम संवेगों पर
अब और नियंत्रण मुश्किल है
तन के मन के आवेगों पर
उन्मुक्त छोड़ कर अब मन को
आओ सपने साकार करें
अभिसार करें
अब मूक प्रणय अत्यन्त हुआ
आओ न खुलकर प्यार करें
अभिसार करें...