अब मोहि एक भरोसौ तेरौ।
भक्ति-भाव सौं बिरत, कलुष-रत, मोहाबृत, बिषयन कौ चेरौ॥
काम-लोभ-मद-मोह बसत निसिबासर कियें हिये महँ डेरौ।
सिरपर मीच, नीच नहिं चितवत, रहत सदा रोगनि सौं घेरौ॥
परमारथ की बात कहत नित, भोगन सौं अनुराग घनेरौ।
बार-बार अनुभवत-नहीं कोउ तो-सौ हितू, न तो-सौ नेरौ॥
तदपि बिसारि तोहि, हौं पाँवर सुमिरौं कामज सुखहि अनेरौ।
अब तौ, बस, तू ही अवलंबन, तो बिनु और न कोऊ मेरौ॥
निज पन-बिरद बिचारि, दयामय! कृपा अहैतुक सौं नित प्रेरौ।
तू ही मोहि उबार बिषम भव-सागर सौं करि छोह बडेरौ॥