अब यदि चलने भी लगे
यह दरख्त
तो कितनी दूर तक चल सकेगा
जब तक यह मरेगा ?
बल्कि पहले सोचने की बात है-
किस दिशा की ओर ?
बायें कि दायें,
आगे कि पीछे,
ऊपर कि निचे ?
और हटते ही दरख्त के
अपनी जगह से
मैं हो जाऊँ जाकर खड़ा वहाँ
दोनों हाथ ऊपर किये
काश मैं सहस्त्रार्जुन होता !
निकल आएँ डालियाँ, पत्ते
मुझ में से
-न सही पुष्प और फल
बना लें चिड़ियें मुझ में भी
घोंसले
और इसी तरह
खैर छोड़ो
तुम कुछ भी नहीं समझे होंगे
मुझे पागल समझने के सिवा
नहीं ?
(1968)