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अब ये झूठहु बोलत लोग / सूरदास

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राग कान्हरौ

अब ये झूठहु बोलत लोग ।
पाँच बरष अरु कछुक दिननिकौ, कब भयौ चोरी जोग ॥
इहिं मिस देखन आवतिं ग्वालिनि, मुँह फाटे जु गँवारि ।
अनदोषे कौं दोष लगावतिं, दई देइगौ टारि ॥
कैसैं करि याकी भुज पहुँची, कौन बेग ह्याँ आयौ ?
ऊखल ऊपर आनि पीठ दै, तापर सखा चढ़ायौ ॥
जौ न पत्याहु चलौ सँग जसुमति, देखौ नैन निहारि ।
सूरदास-प्रभु नैकु न बरज्यौ, मन मैं महरि बिचारि ॥

भावार्थ :-- (श्रीयशोदा जी कहती हैं-) `अब ये लोग झूठ भी बोलने लगे: मेरा बच्चा अभी (कुल) पाँच वर्ष और कुछ दिनों का (तो) हुआ ही है, वह चोरी करने योग्य हो गया? ये मुँहफट गँवार गोपियाँ इसी बहाने (मेरे मोहन को) देखने आती है और मेरे दोषहीन लाल को दोष लगाती हैं । दैव स्वयं इस कलंक को मिटा देगा । भला, इस (श्याम) का हाथ वहाँ (छींके तक) कैसे पहुँच गया ( और यदि यह इस गोपी के घर गया था तो गोपी से पहले) किस बल से यहाँ आ गया (इतना शीघ्र वहाँ से आना तो सम्भव नहीं है ) ।' (गोपी बोली-)`ऊखल के ऊपर इसने लाकर पीढ़ा रखा और उसपर एक सखा को चढ़ाया (और उस सखा के कंधेपर स्वयं चढ़ गया -) यशोदा जी ! यदि आप मेरा विश्वास नहीं करतीं तो मेरे साथ चलें, स्वयं अपनी आँखों से (मेरे घर की दशा भली प्रकार) देख लें ।' सूरदास जी कहते हैं कि (इतने पर भी) व्रजरानी अपने मन में विचार करती रहीं; उन्होंने मेरे स्वामी को तनिक भी डाँटा (रोका) नहीं ।