भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब ये फूल-फूल रस भीने / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
अब ये फूल-फूल रस भीने
कितना तप-तप कर पाई है यह शोभा धरती ने!
तीर प्रखर थे रवि किरणों के
उपल-वृष्टि, झंझा के झोंके
किसमें साहस था पथ रोके
पर इनका मधु छीने!
फूल भले ही ये कुम्हलाये
यहाँ देर तक ठहर न पायें
पर न मलिन होंगी मालायें
जो दीं गूँथ किसी ने
अब ये फूल-फूल रस भीने
कितना तप-तप कर पाई है यह शोभा धरती ने!