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अब ये फूल-फूल रस भीने / गुलाब खंडेलवाल

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अब ये फूल-फूल रस भीने
कितना तप-तप कर पाई है यह शोभा धरती ने!

तीर प्रखर थे रवि किरणों के
उपल-वृष्टि, झंझा के झोंके
किसमें साहस था पथ रोके
पर इनका मधु छीने!

फूल भले ही ये कुम्हलाये
यहाँ देर तक ठहर न पायें
पर न मलिन होंगी मालायें
जो दीं गूँथ किसी ने

अब ये फूल-फूल रस भीने
कितना तप-तप कर पाई है यह शोभा धरती ने!