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अब लकीरों की तसव्वुर से ठना करती है / रवि सिन्हा
Kavita Kosh से
अब लकीरों की तसव्वुर<ref>कल्पना (imagination)</ref> से ठना करती है ।
अब बमुश्किल तिरी तस्वीर बना करती है ।
साँस लौटी है थके जिस्म की ख़बरें लेकर
काँपती लौ भी अँधेरे की सना<ref>प्रशंसा (praise)</ref> करती है ।
रौशनी बन के तिरी याद तो आती है मगर
हाफ़िज़े<ref>स्मरण-शक्ति (memory, capacity to remember)</ref> में मिरे कोहरे से छना करती है ।
पेड़ बूढ़े थे तो दमभर न रुकी थी आँधी
सब्ज़ मौसम से उलझने को मना करती है ।
रूह रूपोश<ref>अदृश्य, फ़रार (hidden, absconding)</ref> हुई दैर<ref>पूजागृह (temple, place of worship)</ref> से कुछ शह पाकर
अब इबादत के सभी काम अना<ref>स्व, ख़ुदी (self, ego)</ref> करती है ।
शब्दार्थ
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