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अब लगने लगा है / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
अब लगने लगा है
तुम ठीक नहीं होंगे
यह गहरी नींद कभी खुलेगी नहीं
स्वीकार करो इस वक्त
मेरा थोड़ा सा प्यार
अपने हाथों से
तुम्हारा सिर सहलाता हूँ
प्यार से देखता हूँ
पाँव छूता हूँ
हाथ जोड़ता हूँ
मुझे मालूम है तुम आँख नहीं खोलोगे
तुम दूरी बनाते जा रहे हो हमसे
तुम हट रहे हो पीछे
किसी गुप्त रास्ते से
हम नहीं जानते कहाँ है वो
कितने मूर्ख हैं हम
इस निढाल शरीर के पास खड़े
ठग रहे हैं अपने आपको
अब तुम्हारी वीणा के स्वर सुनाई नहीं देते
एक-एक तार इसका बंद है
और खो रहा है हमारा चित्त
किसी सूनी मिट्टी में ।