भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब वो झोंके कहाँ सबा जैसे / फ़राज़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब वो झोंके कहाँ सबा<ref>हवा</ref> जैसे
आग है शह्र की हवा जैसे

शब<ref>रात्रि</ref> सुलगती है दोपहर की तरह
चाँद, सूरज से जल-बुझा जैसे

मुद्दतों बाद भी ये आलम<ref>दशा</ref> है
आज ही तू जुदा हुआ जैसे

इस तरह मंज़िलों से हूँ महरूम<ref>वंचित</ref>
मैं शरीक़े-सफ़र<ref> यात्रा का साथी</ref> न था जैसे

अब भी वैसी है दूरी-ए-मंज़िल<ref>गन्तव्य</ref>
साथ चलता हो रास्ता जैसे

इत्तिफ़ाक़न<ref>सहसा, अकस्मात् </ref> भी ज़िंदगी में ‘फ़राज़’
दोस्त मिलते नहीं ‘ज़िया’<ref>प्रकाश(‘फ़राज़’ ने अपने मित्र जियाउद्दीन ‘ज़िया’ के किए संकेत किया है)</ref> जैसे

शब्दार्थ
<references/>