भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब वो सीना है मज़ार-ए-आरज़ू / अख़्तर अंसारी
Kavita Kosh से
अब वो सीना है मज़ार-ए-आरज़ू
था जो इक दिन शोला-ज़ार-ए-आरज़ू.
अब तक आँखों से टपकता है लहू
बुझ गया था दिल में ख़ार-ए-आरज़ू.
रंग ओ बू में डूबे रहते थे हवास
हाए क्या शय थी बहार-ए-आरज़ू.