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अब शख्श दूसरा हूँ मै / प्रेम कुमार "सागर"
Kavita Kosh से
पूछते हो तो सुनो क्यूँ इस कदर उजड़ा हूँ मै
अभी-अभी तो साजिशों के दौड़ से गुजरा हूँ मै |
तेरे दुखों को घोलकर अमृत सा पी जाता था जो
वो शख्श कोई और था, अब शख्श दूसरा हूँ मै |
हो न सका मेरा ठिकाना भद्रों का आंगन कभी
पायल किसी रूपाजीवा की, कोठे का मुजरा हूँ मै |
ख्वाब देखा आस्मां का पर मगर थे ही नहीं
खाक में गिरके मिला अब टूटकर बिखड़ा हूँ मै |
‘सागर’ शबाब पर खड़ा, कोई क्यूँ भरोसा अब करे
पतवार जिसकी टूट गयी, वो लुट चूका बजरा हूँ मै ||