भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब सखि! कहा लोक सों लीजै / स्वामी सनातनदेव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग शंकरा, आढ़ा 14.9.1974

अब सखि! कहा लोक सों लीजै।
मनमोहन ने मोह्यौ यह मन, कैसे याहि विलग अब कीजै॥
स्यामहि के रँग रँग्यौ सखी! यह, कैसे और रंग में भीजै।
होत न सेत अरुन चाहे यह मलि-मलि आपुहिं छीजै॥1॥
इन्द्रिन को राजा मन सजनी! मन तजि सो किमि जीजै।
मन के संग गयीं ते हूँ सब, उन बिनु अब कैसे का कीजै॥2॥
रोम-रोम में बस्यौ स्याम ही, भलै न कोऊ लोक पतीजै।
पय-पानी सम भये एक हम, कैसे हमहिं पृथक अब कीजै॥3॥
मैं तो सदा स्याम की सजनी! अपनी करि मोसों का लीजै।
बौरी कहो भलै भोरी कोउ, मोहिं न अब दूजी सिख दीजै॥4॥
जम को गम हूँ रह्यौ न उर में, परिजन के भयसों का छीजै।
प्रीति-पियूष पान कीन्हों तो अमर होय काको भय कीजै॥5॥