भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब सिवा मेरे कहीं उसका गुज़ारा भी नहीं / कांतिमोहन 'सोज़'
Kavita Kosh से
अब सिवा मेरे कहीं उसका गुज़ारा भी नहीं I
देख वो रुक गया गो मैंने पुकारा भी नहीं II
बच गया आज तो कल उसको भुला भी दूंगा
अब तो दिल को मेरे यादों का सहारा भी नहीं I
खत्म अफ़साना हुआ लुत्फ़ो-करम का यारो
अब वो मायल भी नहीं मुझको गवारा भी नहीं I
रात के थाल को उलटा के वो काफ़ूर हुआ
सांवली शब के कने एक सितारा भी नहीं I
सोज़ यूं बैठ के क़िस्मत को न कोसो अपनी
क्या वो खुश है जिसे तक़दीर ने मारा भी नहीं II