भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अभंग-5 / दिलीप चित्रे
Kavita Kosh से
चढ़ते ही मेरे
तू हो गया पठार
आर-पार बहे
तेरी हवा
पत्थर-झाड़ियों को भी
सतत स्पर्श तेरा
अब नहीं बैठूंगा
मन्दिर में
अनुवाद : चन्द्रकांत देवताले