भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अभद्र सपना / नीरज नीर
Kavita Kosh से
हाथ बढ़ाकर चाँद को छूना,
फूलों की वादियों में घूमना,
या लाल ग्रह की जानकारियाँ जुटाना।
मेरे सपनों में यह सब कुछ नहीं है।
मेरे सपनों में है:
नए चावल के भात की महक,
गेहूँ की गदराई बालियाँ,
आग में पकाए गए
ताजे आलू का सोन्हा स्वाद,
पेट भरने के उपरांत उँघाती बूढ़ी माँ।
किसी महानगर के
दस बाय दस के कमरे में
बारह लोगों से
देह रगड़ते हुए
मेरे सपनों में
कोई राजकुमारी
नहीं आती।
नहीं बनता
कोई स्वर्ण महल।
मेरे सपनों में आता है
बरसात में एक पक्की छत,
जो टपकती नहीं है।
उसके नीचे अभिसार पश्चात
नथुने फूलाकर सोती हुई मेरी पत्नी।
आप कहेंगे यह भद्रता नहीं है
लेकिन मेरा सपना यही है।