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अभयारण्य राजधानी में / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र

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अभयारण्य राजधानी में
वहीं शिकारी हैं

रोज़ मुनादी होती
सारे जीव सुरक्षित हैं
मरते हैं केवल वे
जो देवों से शापित हैं।

माना सभागार में जुड़ते
रोज़ जुआरी हैं

अभय रहे पंतों की टोली
गारंटी पूरी
रक्षक ही भक्षक हो जाते -
उनकी मज़बूरी

शाही दुआघरों से होते
फ़तवे ज़ारी हैं

गाँव-गली तक महिमा व्यापी है
रजधानी की
शाह फेरते हैं माला
संतों की बानी की

परजा-हित के बोझ लदे जो
उन पर भारी हैं