भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अभरौसौ / रेंवतदान चारण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लोकतंत्र सूं लोगां रौ बिसवास ऊठतौ जावै है
राचण लागा होठ लोही सूं बाड़ खेत नै खावै है
सांप रूखालै सूंप्योड़ौ धन जद तक उणरा प्राण न छूटै
पण अै अजगर गादी खूंदै चौड़ै बैठ खंजानौ लूटै
देवां किणनै दोस अरे जद भागीरथ सूं गंगा रूठै
सांन कर किणनै समझावां बूंद बंद यूं सरवर खूटै
आखर आखर आंटौ साजै बातां में बिलमावै है
लोकतंत्र सूं लोगां रौ विसवास उठतौ जावै है
राचण लागा होठ लोही सूं बाड़ खेत नै खावै है

कानूंनां री पोथ्यां माथै आरौ घाल पड़ी तरवारां
साचा दंड भरै झूठां नै मुळक करै नित री मनवारां
आगत रौ विसवास रचावण कितरा दिन तक मनड़ौ मारां
आंधा बोळा गूंगा बण बोल कठा लग धीजौ धारां
बरसां री दब्योड़ी माटी हाकै नै हाथ उठावै है
लोकतंत्र सूं लोगां रौ विसवास उठतौ जावै है
राचण लागा होठ लोही सूं बाड़ खेत नै खावै है

म्हारौ सुख भल मरै पड़ौसी इणनै वै कैवै आजादी
गळी गळी में थांन चांतरा मिंदर है झगड़ां री गादी
लीला भगवा झंडा मिळनै रैयत बांटी आधी आधी
‘म्हैं’ री माया अैड़ो पसरी अक्कल माथै चढ़गी बादी
स्वारथ री चकरी झिलियोड़ी धरम गुळांचा खावै है
लोकतंत्र सूं लोगां रौ विसवास उठतौ जावै है
राचण लागा होठ लोही सूं बाड़ खेत नै खावै है