भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अभावों की यात्रा / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुमसे खर्चों का पूरा हिसाब पूछते
 हर महीने, घर की जरूरतों से जूझते
अब तो सारी उम्र ही बीत गयी।

बिना पूछे नहीं गया, कोई महीना, कोई दिन,
गिनतियों में रहे तीस, कभी इक्कत्तीस दिन।
चीजों के भावों से लेकर, अभावों तक की यात्राएँ,
अभी पूरी नहीं हुई, पूरा हो गया जीवन।

आने वाले कल पर विश्वास नहीं रहा,
विदा लेती रात से उम्मीद ही नहीं रही।
अब तो सारी उम्र ही बीत गयी।
सर के ऊपर से गुजरती रहीं तपती हुई दोपहरियाँ,
शायद हमारे हाथ की लकीरों में ही लिखी थीं, स्थाई कमियाँ,
जीना सीखते रहे हम, हर रोज मजबूरियों के साथ,
जीना सिखाती रहीं हमें हर रोज हमारी मजबूरियाँ,
आकर फिर वापस नहीं गया, अभावों का मौसम,
वैसे राहतों की भी हमें बड़ी प्रतीक्षा रही,
अब तो सारी उम्र ही बीत गयी।
अब कोई उम्मीदें बाकी नहीं बचीं, सांझ के लिये,

क्या इसी दिन के लिये हम जिये? उम्र की शाम के लिये,
कभी सोचा था तुम्हें, चाँदनियों से ढँक देंगे,
दो रोटियों तक के चाँद हमने तुम्हें पूरे नहीं दिये।

साथ में पहली बार नहीं गिरे हमारे आँसू,
हमारी आखिरी रोटी तक आँसुओं से भीगी रही,
अब तो सारी उम्र ही बीत गयी।