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अभावों की यात्रा / महेश सन्तोषी

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तुमसे खर्चों का पूरा हिसाब पूछते
हर महीने, घर की जरूरतों से जूझते
अब तो सारी उम्र ही बीत गयी।

बिना पूछे नहीं गया, कोई महीना, कोई दिन,
गिनतियों में रहे तीस, कभी इकत्तीस दिन।
चीजों के भावों से लेकर, अभावों तक की यात्राएँ,
अभी पूरी नहीं हुईं, पूरा हो गया जीवन।
आने वाले कल पर विश्वास नहीं रहा,
विदा लेती रात से उम्मीद ही नहीं रही।
अब तो सारी उम्र ही बीत गयी।

सर के ऊपर से गुजरती रहीं तपती हुईं दोपहरियाँ,
शायद हमारे हाथ की लकीरों में ही लिखी थीं, स्थाई कमियाँ,
जीना सीखते रहे हम, हर रोज मजबूरियों के साथ,
जीना सिखाती रहीं हमें हररोज हमारी मजबूरियाँ।
आकर फिर वापस नहीं गया, अभावों का मौसम।
वैसे राहतों की भी हमें बड़ी प्रतीक्षा रही।
अब तो सारी उम्र ही बीत गयी।

अब कोई उम्मीदें बाकी नहीं बचीं, सांझ के लिये,
क्या इसी दिन के लिए हम जिये? उम्र की शाम के लिये।
कभी सोचा था तुम्हें, चांदनियों से ढंक देंगे,
दो रोटियों तक के चांद हमने तुम्हें पूरे नहीं दिये।
साथ में पहली बार नहीं गिरे हमारे आँसू,
हमारी आखिरी रोटी तक आँसुओं से भीगी रही।
अब तो सारी उम्र ही बीत गयी।