अभावों के पहाड़ों के सिलसिले / महेश सन्तोषी
लोगों को ऐसे ही नहीं लगने लगतीं,
ज़िन्दगियाँ सूखी नदियों सी, पहाड़ों जैसी,
समय ने कभी न कभी छीनी तो होगी,
आंसुओं के बदले, इन पहाड़ों की हँसी!
उफ्! उम्र भर के अभावों की,
ये इकट्ठी, इकजाई, स्थिर बेबसी!
अभावों की कोई वर्षगाँठ नहीं मनती,
ना उनके कहीं कोई कैलेण्डर छपते,
बस ज़िन्दगियाँ ऐसे ही गुजर जाती हैं,
हर हफ्ते भूख की इबारतें पढ़ते!
एक अन्तर तो था पर, समान्तर चलते रहे,
अभावों के, पहाड़ों के, एक-से सिलसिले!
अस्ताचल तक आते-आते हमें किसी भी प्यास,
किसी भी भूख का, कद याद नहीं रहा,
मर्माहत तो रहीं साँसें, सपने, आँतें, पर,
कब क्या आहत हुआ? कुछ याद नहीं रहा!
सिमटने लगे हैं हम, आखि़री अंधेरों के हाशियों में;
आगे रोशनियों की हद ही नहीं रही! दायरा नहीं रहा!!
देशान्तर, पर, समान्तर संवेदनाओं के परिदृश्य....