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अभावों से ग्रसित ये बस्तियाँ हैं / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

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अभावों से ग्रसित ये बस्तियाँ हैं
कुँवारी निर्धनों की बेटियाँ हैं

पता देती हैं सावन का सभी को
कलाई में हरी जो चूड़ियाँ हैं

भटकता फिर रहा जिसने कहा था
गृहस्थ-आश्रम नहीं ये बेड़ियां हैं
 
बसी है जान कृषकों की इन्हीं में
सुनहरी खेत में जो बालियाँ हैं

हृदय में कामनाएं प्रिय मिलन की
"नयन में अश्रु की चौपाइयां हैं"

सुगन्धित कर दिया वातावरण को
बहुत सोंधी तवे पर रोटियाँ हैं

चली जाए न आकर ऋतु सुहानी
अभी उपवन में उड़ती तितलियाँ हैं

बढ़ाएगा मनोबल क्या किसी का
वो जिसके हाथ में बैसाखियाँ हैं

'रक़ीब' आये न अच्छे दिन अभी तक
गिनाने के लिए उपलब्धियाँ हैं