भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अभिलाषा / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे प्रभु! इतना वर दो!
छाँह दे सकूँ श्रान्त पथिक को ऐसा तरुवर कर दो।
मनमोहर मुसकान बनूँ मैं स्मित विहीन अधरों की।
गति नूतन बन सकूँ पखेरू के निष्प्राण परों की।
चिर निवास हो मेरे मन मंदिर में मानवता का।
हर दुखियारी कुहू निशा को बना सकूँ मैं राका।
वृष्टि कर सकूँ स्नेह सुधा की ऐसा मधुमय स्वर दो!
हे प्रभु! इतना वर दो!

तृप्ति पा सके मुझ से हर चातक की विकल पिपासा।
पूर्ण कर सकूँ पावस बन कर मरुस्ािल की अभिलाषा।
पतझर से पीड़ित उपवन-हित मैं बसन्त बन पाऊँ।
कठिन कंटकाकीर्ण मार्ग को सुमनों से महकाऊँ
सदाचार का सलिल प्रवाहित हो ऐसा निर्झर दो!
हे प्रभु! इतना वर दो!

रूद्ध कंठ को दे पाऊँ मैं गीतों की स्वर लहरी।
कर पाऊँ साकार व्यथित जीवन के स्वप्न सुनहरी।
भरूँ निराशा के नयनों में आशा का उजियारा।
कंठ पराजय के सज्जित कर सकूँ विजय की माला।
कभी न विचलित हो सत्पथ से प्रतिभा पूत प्रखर दो।
हे प्रभु! इतना वर दो!

अमर साधना की कुटिया का दीपक बनूँ अखंडित।
मेरा हर क्षण हो तेरी करुणा से महिमा मंडित।
चिर सहयोगी रहे सफलता श्रम का बनूँ पुजारी।
आदर्शों से रहे सुवासित जीवन की फुलवारी।
मेरे उर अन्तर में सात्विक भाव-भंगिमा भर दो।
हे प्रभु! इतना वर दो!