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अभिलाषा / सरोज कुमार
Kavita Kosh से
प्रभु
तुम्हें प्रणाम करते हुए
क्या मै अपने ही सपनों को प्रणाम नहीं करता?
तुम तो शाश्वत हो
पर क्या मैं अनंत काल
मात्र भक्त बना रहने को अभिशप्त हूँ?
तुम निश्चित ही शाश्वत हो
पर क्या मेरी नियति भी शाश्वत है
जैसा हूँ वैसा ही बने रहने की?
तुम मानों या न मानों प्रभु,
तुम्हें प्रणाम करते हुए
मैं वहाँ नहीं रह जाता
जहाँ प्रणाम के पहले था!
मेरे प्रणाम
तुम्हारी मेरी दूरियाँ कम करते चलते हैं!
और तूम देखना
मैं एक दिन
अपने प्रणामों की ताकत से
तुम्हारे-मेरे फासले कम करते-करते
ठीक तुम्हारे निकट आकर खड़ा हो जाऊँगा!
बताओ,तब भी क्या मुझे
हमेशा की तरह
केवल आशीर्वाद ही दोगे
या गले भी लगा लोगे?