भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अभिशप्त स्त्रियाँ / प्रज्ञा रावत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मत खोजो रोज़ नए अर्थ
उनके हँसने के, हँसाने के
विराम दो अपने शब्दों को
जो अविरल अकारण
बहते हैं अविराम

मत हर कड़ी कुरेदो उनका अन्तर्मन
अभी गणित ने कहाँ बनाया है
कोई ऐसा पैमाना
जो बता पाए उनकी अथाह पीड़ा

शुक्र मनाओ कि पृथ्वी के जिस
भाग पर हैं सब
उसका पानी
समेटे हैं वो अपने भीतर
उनका दुःख तो सिर्फ़ उनका है
वो तो अपना सुख बाँटती हैं सबसे।
</poem