अभिशाप / माद्री / तेजनारायण कुशवाहा
रत्नमय सजल-सजल झलमल
आबे माद्री बिहरै पांडु-राजमहल
माद्री मने राखै रहै न´् कोय दुराव
मिली-जुली रहै छोड़ि के सौतिन भाव
भक्ति नारी शक्ति नारी अनुरक्ति गति
कविता के यति भाव कल्पना-सम्पत्ति
नारी कविता के ममता शुचिता शांति
भ्रांति नारी आश्रिति संक्रांति नारी क्रांति
गुण रीति वृति नारी रस अलंकार
कविता के प्रकृति महाकृति के सार
नारी अपरा परा सरस्वती भवानी
कल आय फनु कल के कथा-कहानी
महारानी माद्री नारी नारी केरोॅ नारी
महारानी माद्री नारी कविता के नारी
नई नारी से राजा के फुराय न´् बात
करकै बिहार माद्री संगे तीस रात।
पांडु-मने इच्छा भेलै दिग्विजै करैलेॅ
धन-सम्पति सें राज कोष के भरै लैॅ
हाथी घोड़ा रथ पैदल सेना लै साथ
दिग्विजय लेली निकललै भूमिनाथ
आगू दशार्णो पै सेना करी कै चढ़ाय
हक जमैलकै पांडु होकरा हराय
मगधराज दीर्घ सें लड़ी वध करि
ढेरे धन लेलकै हस्तिनापुर हरि
विदेह के जिति काशी सुह्म पुंड्र जिति
बेसूमार धन लेलकै पांडु भूपति।
माथोॅ टेकलकै भूतल के सम्भे राजा
आबे राजा न´्, कहैलै पांडु महाराजा
माणिक, मोती, मूंगा, चांदी, सोना, खनि-धन
देलकै वैं सिनी ढेर-के-ढेर रतन
गाय, बैल, हाथी, घोड़ा, ऊंट, भैंस, भेड़
गाय, बकरी-ओ देलकै जेर-के-जेर
शंख, तुरुही, भेरी सें गगन गंुजैने
पांडु ऐलै हस्तिनापुरी के गनगनैने।
भीष्म संगें कौरवें करकै अगवानी
पांडुरोॅ पहुंच सुनतें पुरी के प्रानी
भीष्म के हेरिये पांडु झट रथ थाम
उतरी गोड़ छुबीकेॅ करकै प्रणाम
करकै सम्मान कुरू देश के लोगोॅ के
हुनकोॅ शुभभाव के आरोॅ सुयोगोॅ के
अजित राजा पांडु ने उपार्जित धन
राजकोष में भरकै सविधि तत्क्षण
दिग्विजय-उत्सव मनैलकै नगरी
हर गली घोॅर झरलै फूलो के झरी।
एक रात माद्री मने करकै विचार
स्वामी संगे चली करै लेॅ वन-विहार
दीदी सें हांभी भराय चिरैं रं चहकी
पिया भीरीं जाय के वैं कलें-से कहकी
‘स्वामी चलोॅ कुछु दिनों ले नगर छोड़ि
संगें होथौं गंगा-यमुना संगिनी तोरि
दूर पछिमें से पूबें हिमतलहटी
सगौन वन बहतें तटिनी के तटी
दूब के बिछौना वहां पतै हरा-हरा
मन लुभावनी सौंरी-सौंरी वसुन्धरा
वने झुला झुलबोॅ आमि चिनार-डार
बड़ा सुख देथौं राजा विपिन-विहार
वनदेवी-देवता के पूजबोॅ मनैबोॅ
ऋषि कन्या आरनी के खेलबोॅ-खेलैबोॅ
सांझी खुनी संझवाती देखबोॅ-देखबोॅ
अच्छा होथौं पिया संगे हेलबोॅ-हेलैबोॅ
नीक लागथौं सैयां सोम पीबोॅ-पिवैबोॅ
खिस्सा कहानी पिहानी सुनबोॅ-सुनबोॅ
नीक लागतों पिया वन के परिधान
हरा लाल पीरोॅ रंग-रंग के वितान
नीक लागथौं पिया हे कोइली के गीत
मोर के नाच सैयां हे पपैया के प्रीत
वहां हेरबोॅ हे पिया मृग के विहार
चौकड़ी लगैतें नीलगाय के कतार
रोकबोॅ बिरिछ के काटबोॅ-कटवैबोॅ
नया-नया गाछियो रोपबोॅ-रोपवैबोॅ
वन-कगरी बैहारी में धान उगैबोॅ
हाल न´् होला से पिया होकरा पटैबोॅ
फरलोॅ गाछी चढ़ीकेॅ डार के हिलैबोॅ
भुट-भुट पाकलोॅ गिरलोॅ फल खैबोॅ
वन से मिलै राजा ऐंगन ले जारन
धरन खम्भा-खुट्टी ऊपर के छारन
वन दै औषधि, सागपात, फूल-फल
रंग, संन्यासी के ऋषि-मुनि के दुकूल
संयम में राखै वन वायुमंडल के
प्रान प्रानियों के बड़प्पन जंगल के
जीवन छेकै ढालबोॅ स्थिति अनुरूप
जीव वातावरण के सम्बन्ध अनूप
वातावरण प्रभाव शुरू सें प्रकट
खाली हम्में तोहें न´् सभ्भे जन्तु जगत्
ताप, जलवाष्प आ प्रकाश के असर
ज्ञात-अज्ञात रूप से पड़ै सभ्भे पर
वन हृदय के राग रंजित करथौं
सुन्दर समय तहां के श्रम हरथौं
दूर होथौं मस्तिष्क हृदय के विकार
देह में होथौं राजा ताजगी के संसार
वन पढ़ावै छै स्वावलम्बन के पाठ
फैलावै नजर खोलि संकोच के गांठ
स्नेह आरोॅ भाइचारा के भाव भरै छै
उदार सहनशील सुभाव करै छै
मिलथौं देह के शक्ति मन केरोॅ शक्ति
जगतों पिया वन लेली प्रगाढ़ भक्ति
सिद्ध भूमि तपोभूमि वन मनोभूमि
मन के जुड़ैबोॅ पिा तहां घूमि-घूमि
वन में उगतों राजा अध्यात्म दर्शन
लोक से परेरोॅ सुख मिलतों सजन
लजैतों होली कली के घुंघटा उठैबोॅ
हंसबोॅ रस भरल फूल के हंसैबोॅ
शीतल मंद सुगंध पवन के देश
देह के मनोॅ के हरै रोग शोक क्लेश
लोक लेॅ वनोॅ के पर्यावरण सनेश
चलोॅ सुनबोॅ हे पिया वचन विशेष!
दीदी-ओ चलथों साथ देने छों विचार
वहां जुड़तों नगर-वन संस्कार
ध्यान सें सुनकै राजा माद्री के कथन
भिहरी उठलै राजा के मन-यौवन
‘राजरानी माद्री हे, मानलों तोरोॅ बात
चलोॅ मिलि तीन्हू गोटो होवै दोॅ प्रभात।’
रात बीतलै फुटलै पौ होलै बिहान
घंटा हिन्ने हुन्ने गुंजलै चिरैं के गान
पेन्हीं-ओढ़ी रानी राजा लै तीर कमान
वन सैन्य बल संगे करकै प्रयान।
लता-झुरमुट-कुंज की सोहानोॅ दिन!
वन सोहै माद्री सें कि माद्री सें विपिन?
अलंकार बहूरानी के, विहार वन
आर-पार मौसम केरोॅ विहार वन
वर-बहू के वसंत के विहार वन
शरद शीत हेमन्त के विहार वन
माद्री के राग-विराग के विहार वन
आधो राती रोॅ विहाग के विहार वन
जवान माद्री के मन के विहार वन
पराग भरली कली के विहार वन
माद्री के प्रणय-मान के विहार वन
केश कुच होठ दान के विहार वन
पी के आलाप-संलाप के विहार वन
धृति मति स्मृति मद के विहार वन
प्रीतम-संगम-सुख के विहार वन
रति केलि श्रम-मोचन विहार वन
जौं पी के संग में रहै चलै परिहास
हिन्ने-हुन्ने रेंगै भागै दूर कभूं पास
माद्री हेरी लता लिपटली सगौन के
‘छेकों के हे पिया लैकेॅ भाषा मनौन के’
लुखी रङ् फुद-फुद करै छिपै-लुकै
देखी-सुनी कुन्ती लता आड़ोॅ में मुसुकै
जब असकल्ली रहै खिल-खिल हंसै
बलमा के आगू/बलमा बांही में कसै।
माद्री मने सोचै-कत्ते भल्लोॅ महारानी
मिलि रचौं सौत के नयी प्रेम कहानी
सहमै छै कैन्हें सुनि सौतिन के नांव
रस लेॅ थिर होतै की एक सौत-भाव?
सौतिन में भेद भेलै राम वनवास
वहेॅ भेद कद्रूरोॅ विनता भेलै दास
सुनीति सुखचि कथा विदित जगत्
पिछलकी गरमी पहिलकी शरत्
हायरे समाज तोरोॅ ई नियम केनो
एक बसै के दोसरी सं दुराव हेनो?
समाजें नारी मन फोड़ै छै उघारै छै
भाव के सुन्दर ढेरी ढाहै मिंघारै छै
नारी के मन-हृदय साफ-साफ होय
न´्झोय विकार वहां न´् तेॅ पाप कोय
विभाव-परम्परा सौत भाव उगावै
जगती में तबेॅ तेॅ नारी दुर्नाम पावै
दुनियां रोॅ सौतिन छोड़े सौतिन भाव
हमरे ले हमरे सोय बेटा ले चाव।
दै जुटाय बड़ी छोटकी रसोय संधै
बड़की-एं छोटकी केखोंपोॅ झारे-बांधे
एकें दोसरा के करै सिंगार-पटार
दोन्हू समभाव पावै सांय के दुलार
घूरै दोन्हू विपिन संगें सांझ-विहान
पिया के समान सेवा करै पावै मान
एक दिना पांडु मृगया मंे निकललै
सघन वने मृग यूथपति मिलै
आपनी मृगी संग में रहै संवास मंे
निश्चित रूप में खुला-खुला आकास में
सुनहरा पांच-टा पंख लागलोॅ वाण
छोड़कै बिंधकै मृग-मृगी केरोॅ प्राण
खून लथपथ मृग, मृगी सें सटलें
मनुष्य बोली बोलतें क्षणें लुढ़कलै।
‘निर्दोष निरपराध प्राणी के मारल्हें
निष्कलुष देह में वाण विष भरल्हें
बुद्धि मारलो गेलोॅ छो निर्दयी निठुर
उच्च कुल के नाम घिनैने रे असुर।’
‘अहेर मृग मारलों से कैन्हें दै गारी?’
‘तोड़ले नियम यहों रे हमरा मारी।
काम-लोभ के वश होबी कैलें कुकर्म
बेकसूर के मारल्हें छोड़ि राजधर्म।
रतिप्रसंग के बाद जौं मारतें राजा
सच्चे कहो तबेॅ तेॅ न´् बजतियो बाजा।’
‘राजा-हरिण लेली वध-वृत्ति समान
निन्दा फनु करै छैं कैन्हें बनी अजान
आवै छै कत्तेनी यैं सें पहिने आख्यान
निन्दा करै छै कैन्हें कैन्हें लै छैं संज्ञान?’
‘राजा हम्में मुनि छेकां मृग रूपधरी
बिचरौं सघन वन संग सहचरी
किंदम छेकां, संवास, हे नर-पुंगव
नर-देह में करौं लाज के अनुभव
मृग बनी हमें आपनी मृगी के संग
यहां विपिन में करै रहां अभिसंग
जौनी घरी मैथुन-क्रिया में रत होभें
मृत्यु मुंह में जैभें हमरे रङ् रीभें
जौनी बसै संग तोरोॅ होतो सहवास
अनुगमन करतो सश्रद्धा-विश्वास।’
घाव के दरद में भारी दुख उठैने
स्वर्ग सिधारकै मृग राजा के उबैने।
आह भरकै राजा लागलै पछिताय
भयानक भय सें लागलै थरथराय
वीरोचित भाव पिघली भेलै करुण
भिंजलै सौ घैला पानी ढारकै करुण
शाप सुनीके माथोॅ धरकै महारानी
सिहरलै माद्री कांपी उठलै जवानी।
घटित जे भेलै वें पेॅ लागलै कलपै
शोकातुर राजा पांडु लागलै विलपै
काम-भोग से मोहित बाबू-ओ छेलेन
यहो दुनियां के छोउि़ छोटे में गेेलेन
काम सें मोहित वहेॅ राजा के रानी सें
कृष्ण द्वैपायने जनकै निज पानी सें
देवें मृगया के पीछू रहै के कारणे
हमरा तजने छै लागै छै मोरा मने
यहेॅ लेली हमरोॅ ई मति छै मरैली
उच्चोॅ कुल रहलो प बुद्धि छै हेरैली
‘दुख, शोच छोड़ोॅ होनी होके रहै रानी
जाहोॅ लें वहां राजधानी दोन्हू रानी
माया अम्बा अम्बालिका आ भाय विदुर
धृतराष्ट्र दादी सत्यवती चाचा जुर
हमरोॅ सनेश दिहोॅ, रानी खुश भेलोॅ
‘राजा पांडु संन्यासी भैकेॅ विपिन गेलोॅ।’
पुरजन-परिजन के दिहोॅ सम्मान
बच्चा-बच्ची-सयान के मोर स्नेहदान।’
‘संन्यास के सिवा आश्रम के आरो अंग
तपस्या करै पारोॅ रही के दोन्हू संग
मन आरोॅ इन्द्रिय के संयम में राखी
तप करबों है पिया संग वन पाखी
तोरा ले विजन वन मोरा ले भवन
मोरा ले सुमन तोरा ले तप सजन
हमरा दोन्हू के छोड़ि जौं जंगल जैभैॅ
तप लेॅ हे स्वामी, प्राण बिना देह पैभेॅ।’
‘हम्में तोरा सब के सुन्दर बात मानौं
पिता वेदव्यास के पथ लेॅ व्रत ठानौं
तजी भोगीजन के आहार आरोॅ सुख
बलकल वसन पेन्हीं उठाय दुख
नाही धोय संध्या करबों सांझ-बिहान
पूरा करबो हे अग्नि होत्र के विधान
करी बानप्रस्थ आश्रम नेम-पालन
यहेॅ रङ् वामांगी निबाहबोॅ जीवन’
पांडु शरीर में उतारकै आभूषण
कंठा, कुंडल जोशन अमूल्य वसन
कुन्ती, माद्री-ओ उतारकै देहवसन
राजा सेवक के दै कहकै ई वचन
‘लौटी हस्तिनापुर के कहियै आपने
अर्थ, काम-सुख तजिये वन सें वने।
विषय सुखो छोड़ि के आमोद उमंग
पांडु भेलों वानप्रस्थ रानियो के संग।’
पुरुष सिंह पांडु के करुण-कातर
नया अदभुत सोच सुनि अनुचर
सेवक चीखकै नयना भरलै लोर
हस्तिनापुर गेलै राजा, रानी के छोड़
हिन्ने राजा चललें सहित दोन्हू रानी
शांत करुण के एक रचैलेॅ कहानी।