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अभिसार की अनुभूतियाँ / पद्माकर शर्मा 'मैथिल'

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अभिसार की अनुभूतियों को गीत का दूँ रूप कैसे
तुम स्वंय ही गीत बन, मेरी कलम पर छा रही हो।

जब कभी मैं याद करता, मौन नयनों का निमन्त्रण,
एक सिहरन-सी लिए बस, टूट जाता हिय।नियन्त्रण,
होंठ में अंगुली दबाकर, मुस्कराना वह तुम्हारा,
और कुछ कम्पित अधर से, गुनगुनाना वह तुम्हारा,

बेड़ियो में बाँध दूँ कैसे भड़कती भावनाएँ।
इस भटकते से हृदय को और तुम भटका रही हो।

प्राण! स्मृति गर्भ में तुम इस तरह उतरी हुई हो,
ज्यों जलधि के अंक में, चट्टान इक उभरी हुई हो,
गोद में लेकर किसी, उत्पीड़िता के लाल को,
जब कभी आई मेरे सम्मुख, न देखा भाल को,

आज फिर भी मैं तुम्हें पहचानता प्रिय कौन हो तुम
जो मचलती लहर बन हिय।कूल से टकरा रही हो।

हृदय की गहराइयों में, डूबता-सा मौन चिन्तन,
या अदेखे मीत की मधुकल्पना-सी तीव्र धड़कन,
भावनाएँ जब नयन की पालनों में सो गई,
सपन में आई परछाई, जगत में खो र्गई,

प्रीत पनघट से हमेशा, याद पनिहारिन तुम्हारी,
इस तरह लौटी कि ज्यों रीती गगरिया ला रही हों।