भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अभिसार / राजकमल चौधरी
Kavita Kosh से
यदि इस वीडियो के साथ कोई समस्या है तो
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
जखन क्रोधित भेल प्रकृति, बिहाड़िसँ हतप्रभ, श्रीहीन, जर्जर
जर्जर भय गेल भालसरिक ओ गाछ, जाहि पर
बैसल छल अमावास्याक निरीह अन्धकारमे कतेको चिरइ
कतेको चिरइ...
मुदा, एहि दुर्दान्त बिहाड़िमे सभटा चिरइ उड़ि गेल
बिला गेल अन्धकारमे कतेको चिरइ
मुदा, तइयो
एकटा सोनचिरइ, एकटा एकसर सोनचिरइ भालसरिक ओहि डारि पर
बैसले रहि गेल
आबय बिहाड़ि, बरखा आबि जाय
बैसले रहि जायत ओ सोनचिरइ, एकसर, पानिमे भिजैत
प्रतीक्ष करैत
जर्जर भेल भालसरिक गाछ पर एकटा सोनचिरइ
एकसर एकटा सोनचिरइ पानिमे भिजैत
प्रतीक्षा करैत
(आखर, राजकमल स्मृति अंक: मइ-अगस्त, 1968)