भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अभी ज़मीन को सौदा बहुत सरों का है / 'असअद' बदायुनी
Kavita Kosh से
अभी ज़मीन को सौदा बहुत सरों का है
जमाव दोनों महाज़ों पे लश्करों का है
किसी ख़याल किसी ख़्वाब के सिवा क्या हैं
वो बस्तियाँ के जहाँ सिलसिला घरों का है
उफ़ुक़ पे जाने ये क्या शय तुलू होती है
समाँ अजीब पुर-असरार पैकरों का है
ये शहर छोड़ के जाना भी मारका होगा
अजीब रब्त इमारत से पत्थरों का है
वो एक फूल जो बहता है सतह-ए-दरिया पर
उसे ख़बर है के क्या दुख शनावरों का है
उतर गया है वो दरिया जो था चढ़ाव पर
बस अब जमाव किनारों पे पत्थरों का है